इलाही क्या ये शब-ए-ग़म है उम्र भर के लिये मैं कब से जाग रहा हूँ बस इक सहर के लिये मैं कब से जाग रहा हूँ बस इक सहर के लिये दिल आज उनके ही दीदार को तरसता है दीदार को तरसता है दिल आज उनके ही दीदार को तरसता है उन्ही के ग़म में लहू आँख से बरसता है शरीक़-ए-हाल बने थे जो उम्र भर के लिये मैं कब से जाग रहा हूँ बस इक सहर के लिये मेरे ही दम से थी आबाद रहगुज़र उनकी मेरे ही दम से थी आबाद रहगुज़र उनकी मेरी तरफ़ नहीं उठती है अब नज़र उनकी जहाँ को छोड़ दिया जिनकी रहगुज़र के लिये मैं कब से जाग रहा हूँ बस इक सहर के लिये ये इल्तिजा है कि अब उम्र मुख़्तसर कर दे उम्र मुख़्तसर कर दे ये इल्तिजा है कि अब उम्र मुख़्तसर कर दे मैं जिसकी रात न देखूँ वो ही सहर कर दे इलाही क्या ये शब-ए-ग़म, शब-ए-ग़म है उम्र भर के लिये मैं कब से जाग रहा हूँ बस इक सहर के लिये मैं कब से जाग रहा हूँ बस इक सहर के लिये
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