और कितने ग़म उठाए आदमी क्यूँ जिए जब जी न पाए आदमी और कितने ग़म उठाए आदमी क्यूँ जिए जब जी न पाए आदमी और कितने ग़म उठाए आदमी राह भूले जब मुसाफ़िर सामने तूफ़ान आए हर क़दम के साथ मंज़िल और उससे दूर जाए दूर जाए टूट कर क्यूँ गिर न जाए आदमी क्यूँ जिए जब जी न पाए आदमी और कितने ग़म एक सपने के लिए इस ज़िन्दगी को वार बैठे दांव पर सब कुछ लगाया और बाज़ी हार बैठे हार बैठे दर्द ये किसको सुनाए आदमी क्यूँ जिए जब जी न पाए आदमी और कितने ग़म उठाए आदमी क्यूँ जिए जब जी न पाए आदमी और कितने ग़म
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