ज़ेहरा ने तीन रोज़े जो रखे थे बाख़ुदा वो किस तरह क़ुबूल हुए सुनिये माज़रा ज़ेहरा ने तीन रोज़े जो रखे थे बाख़ुदा वो किस तरह क़ुबूल हुए सुनिये माज़रा
हैदर का मर्तबा है ज़माने पे आशतार जौ-जा बतुल सी मिली हैदर को ग़म-गुज़ार बिन-ते-रसूल और ख़ुदा का फिर उन से प्यार फ़रज़न्द भी अता किये दो हक़ ने शानदार सुनिये अली वो फ़ातिमा का सब्र और क़रार भूखे रहे न हाथ से जाने दिया विकार
बचपन में जब अली थे शब्बीर-ए-नामदार उल्फ़त में थाना फ़ातिमा ज़ेहरा को कुछ क़रार रो कर लगी ये कहने के ऐ मेरे किर-दिगाररखूँगी तीन रोज़े जो अच्छा हो गुल-अज़ारमक़बूल फ़ातिमा की हुई उस घड़ी दुआ यानी अली के लाल को हासिल हुई शिफ़ा
वादा किया था रोज़े का रोज़ा तो रख लिया इफ़्तार को नमक भी नहीं था मगर ज़रा बीबी बैतूल ने वफ़ा वादा तो कर दिया अब आगे और सुनिये है सुनने का माज़रा देखा अली ने कुछ नहीं रोज़े के वास्ते अपनी ज़िरह वो बेचने बाज़ार में गए
बेचीं ज़िरह दिरहम लिए और अपने घर चले जौ लाके घर में फ़ातिमा के पास रख दिए रोटी पकाई पीस के बिन-ते-रसूल ने रखा उठा के रोटी को इफ़्तार के लिए दर पर अली के इतने में साइल ने दी सदा कुछ कीजिये अता कि मैं भूखा हूँ बाख़ुदा
आवाज़ सुनके आपने फिर काम ये किया रखी थीं जितनी रोटियाँ सब की उसे अता बेख़ौफ़ पानी पी के रखा रोज़ा दूसरा उस दिन भी साइल आ गया सब उसको दे दिया कुछ ख़ौफ़ पैदा हो गया लरज़ा भी आ गया हिम्मत को फिर भी हाथ से जाने नहीं दिया
फिर तीसरा भी रोज़ा इसी तरह रख लिया हक़ दीनो हक़-शनाश थे वो दोनों बाख़ुदा दिन तो इबादतों में बहरहाल सब कटा लेकिन करीब-ए-शाम बुरा हाल हो गया मग़रिब का वक़्त अर्श पे जब हो गया अयां मस्जिद में गूँजने लगी हर सिम्त जब अयां
जब तीसरा भी खोलने रोज़ा चले अमीर उस शाम को भी आ गया कोई वहाँ असीर कहने लगा हो माई भला भूखा है फ़क़ीर उस शख़्श को भी है ज़कात की हैदर में दी नज़ीर खुद पानी पी के रोज़े को इफ़्तार कर लिया घर इस तरह से खुल्द में तैयार कर लिया
तशरीफ़ लाए घर में जो सरकार-ए-नामदार सुनकर ये वाक़यात हुए कद्र-ए-बेक़रार इतने में आए अर्श से जिब्रील ने दी विकारकहने लगे की फ़ातिमा से खुश है किर-दिगारआल-ए-नबी पे जो है बशर जान से निसार महशर के रोज़ देखेगा जन्नत की वो बहार महशर के रोज़ देखेगा जन्नत की वो बहार महशर के रोज़ देखेगा जन्नत की वो बहार महशर के रोज़ देखेगा जन्नत की वो बहार
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