गई यक-बयक जो हवा पलट नहीं दिल को मेरे क़रार है करूँ इस सितम का मैं क्या बयाँ, मेरा ग़म से सीन फुगां हैगई यक बयक जो हवा पलट
न था शहर देहली ये था चमन, कहूँ किस तरह का यहाँ था अमनइसे जा के देखो तो अब ज़रा, फ़क़त एक उजड़ा दयार हैकरूँ इस सितम का मैं क्या बयाँ यही तंग हाल जो सबका है, ये करिश्मा क़ुदरते-रब का हैजो बहार थी सो ख़िजां हुई, जो खिजां थी अब वो बहार हैगई यक बयक जो हवा पलट
न दबाया ज़ेरे जमीं उन्हें, न दिया किसी ने कफ़न उन्हेंन हुआ नसीब वतन उन्हें, न कहीं पे निशाने-मज़ार हैगई यक बयक जो हवा पलट
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