रामायण-अयोध्या काण्ड खंड-1 (भाग-1)
मुकेश
मंगल भवन अमंगल हारी द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी
जब तें रामु ब्याहि घर आए नित नव मंगल मोद बधाए
रिधि सिधि संपति नदीं सुहाई उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई
सब बिधि सब पुर लोग सुखारी रामचंद मुख चंदु निहारी
एक समय सब सहित समाजा राजसभाँ रघुराजु बिराजा
रायँ सुभायँ मुकुरु कर लीन्हा बदनु बिलोकि मुकुट सम कीन्हा
श्रवन समीप भए सित केसा मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा
नृप जुबराज राम कहुँ देहू जीवन जनम लाहु किन लेहू
यह बिचारु उर आनि नृप सुदिनु सुअवसरु पाइ
प्रेम पुलकि तन मुदित मन गुरहि सुनायउ जाइ
नाथ रामु करिअहिं जुबराजू कहिअ कृपा करि करिअ समाजू
मोहि अछत यहु होइ उछाहू लहहिं लोग सब लोचन लाहू
सुनि मुनि दसरथ बचन सुहाए मंगल मोद मूल मन भाए
बेगि बिलंबु न करिअ नृप साजिअ सबुइ समाजु
सुदिन सुमंगलु तबहिं जब रामु होहिं जुबराजु
सुनत राम अभिषेक सुहावा बाज गहागह अवध बधावा
राम सीय तन सगुन जनाए फरकहिं मंगल अंग सुहाए
पुलकि सप्रेम परसपर कहहीं भरत आगमनु सूचक अहहीं
भरत सरिस प्रिय को जग माहीं इहइ सगुन फलु दूसर नाहीं
एहि अवसर मंगलु परम सुनि रहँसेउ रनिवासु
सोभत लखि बिधु बढ़त जनु बारिधि बीचि बिलासु
बाजहिं बाजने बिबिध बिधाना पुर प्रमोदु नहिं जाइ बखाना
भरत आगमनु सकल मनावहिं आवहुँ बेगि नयन फलु पावहिं
कनक सिंघासन सीय समेता बैठहिं रामु होइ चित चेता
सकल कहहिं कब होइहि काली बिघन मनावहिं देव कुचाली
सारद बोलि बिनय सुर करहीं बारहिं बार पाय लै परहीं
बिपति हमारि बिलोकि बड़ि मातु करिअ सोइ आजु
रामु जाहिं बन राजु तजि होइ सकल सुरकाजु
नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकेइ केरि
अजस पेटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि
दीख मंथरा नगरु बनावा मंजुल मंगल बाज बधावा
पूछेसि लोगन्ह काह उछाहू राम तिलकु सुनि भा उर दाहू
भरत मातु पहिं गइ बिलखानी का अनमनि हसि कह हँसि रानी
ऊतरु देइ न लेइ उसासू नारि चरित करि ढारइ आँसू
सभय रानि कह कहसि किन कुसल रामु महिपालु
लखनु भरतु रिपुदमनु सुनि भा कुबरी उर सालु
कृष्णा
रामहि छाड़ि कुसल केहि आजू जेहि जनेसु देइ जुबराजू
भयउ कौसिलहि बिधि अति दाहिन देखत गरब रहत उर नाहिन
पूतु बिदेस न सोचु तुम्हारें जानति हहु बस नाहु हमारें
कोउ नृप होउ हमहि का हानी चेरि छाड़ि अब होब कि रानी
जारै जोगु सुभाउ हमारा अनभल देखि न जाइ तुम्हारा
तातें कछुक बात अनुसारी छमिअ देबि बड़ि चूक हमारी
मुकेश
गूढ़ कपट प्रिय बचन सुनि तीय अधरबुधि रानि
सुरमाया बस बैरिनिहि सुह्द जानि पतिआनि
भावी बस प्रतीति उर आई पूँछ रानि पुनि सपथ देवाई
कृष्णा
का पूछहुँ तुम्ह अबहुँ न जाना निज हित अनहित पसु पहिचाना
रामहि तिलक कालि जौं भयऊþ तुम्ह कहुँ बिपति बीजु बिधि बयऊ
जौं सुत सहित करहु सेवकाई तौ घर रहहु न आन उपाई
मुकेश
बड़ कुघातु करि पातकिनि कहेसि कोपगृहँ जाहु
काजु सँवारेहु सजग सबु सहसा जनि पतिआहु
साँझ समय सानंद नृपु गयउ कैकेई गेहँ
गवनु निठुरता निकट किय जनु धरि देह सनेहँ
सुरेन्द्र और अम्बर
केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारई
मानहुँ सरोष भुअंग भामिनि बिषम भाँति निहारई
दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाहरु देखई
तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखई
मुकेश
बार बार कह राउ सुमुखि सुलोचिनि पिकबचनि
कारन मोहि सुनाउ गजगामिनि निज कोप कर
अनहित तोर प्रिया केइँ कीन्हा केहि दुइ सिर केहि जमु चह लीन्हा
कहु केहि रंकहि करौ नरेसू कहु केहि नृपहि निकासौं देसू
सकउँ तोर अरि अमरउ मारी काह कीट बपुरे नर नारी
प्रिया प्रान सुत सरबसु मोरें परिजन प्रजा सकल बस तोरें
जौं कछु कहौ कपटु करि तोही भामिनि राम सपथ सत मोही
बिहसि मागु मनभावति बाता भूषन सजहि मनोहर गाता
पुष्पा
मागु मागु पै कहहु पिय कबहुँ न देहु न लेहु
देन कहेहु बरदान दुइ तेउ पावत संदेहु
मुकेश
थाति राखि न मागिहु काऊ बिसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ
झूठेहुँ हमहि दोषु जनि देहू दुइ कै चारि मागि मकु लेहू
रघुकुल रीति सदा चलि आई प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई
पुष्पा
सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का देहु एक बर भरतहि टीका
मागउँ दूसर बर कर जोरी पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी
तापस बेष बिसेषि उदासी चौदह बरिस रामु बनबासी
मुकेश
बिबरन भयउ निपट नरपालू दामिनि हनेउ मनहुँ तरु तालू
बोले राउ कठिन करि छाती बानी सबिनय तासु सोहाती
जिऐ मीन बरू बारि बिहीना मनि बिनु फनिकु जिऐ दुख दीना
कहउँ सुभाउ न छलु मन माहीं जीवनु मोर राम बिनु नाहीं
सुनि म्रदु बचन कुमति अति जरई मनहुँ अनल आहुति घृत परई
पुष्पा
देहु कि लेहु अजसु करि नाहीं मोहि न बहुत प्रपंच सोहाहीं
होत प्रात मुनिबेष धरि जौं न रामु बन जाहिं
मोर मरनु राउर अजस नृप समुझिअ मन माहिं
सुरेन्द्र और अम्बर
देखी ब्याधि असाध नृपु परेउ धरनि धुनि माथ
कहत परम आरत बचन राम राम रघुनाथ
मुकेश
राम राम रट बिकल भुआलू जनु बिनु पंख बिहंग बेहालू
गए सुमंत्रु तब राउर माही देखि भयावन जात डेराहीं
कहि जयजीव बैठ सिरु नाई दैखि भूप गति गयउ सुखाई
सचिवँ उठाइ राउ बैठारे कहि प्रिय बचन रामु पगु धारे
सिय समेत दोउ तनय निहारी ब्याकुल भयउ भूमिपति भारी
सीय सहित सुत सुभग दोउ देखि देखि अकुलाइ
बारहिं बार सनेह बस राउ लेइ उर लाइ
नाइ सीसु पद अति अनुरागा उठि रघुबीर बिदा तब मागा
पितु असीस आयसु मोहि दीजै हरष समय बिसमउ कत कीजै
रामु तुरत मुनि बेषु बनाई चले जनक जननिहि सिरु नाई
सजि बन साजु समाजु सबु बनिता बंधु समेत
बंदि बिप्र गुर चरन प्रभु चले करि सबहि अचेत9
बालक बृद्ध बिहाइ गृँह लगे लोग सब साथ
तमसा तीर निवासु किय प्रथम दिवस रघुनाथ
मुकेश
मंगल भवन अमंगल हारी द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी
रघुपति प्रजा प्रेमबस देखी सदय हृदयँ दुखु भयउ बिसेषी
कहि सप्रेम मृदु बचन सुहाए बहुबिधि राम लोग समुझाए
किए धरम उपदेस घनेरे लोग प्रेम बस फिरहिं न फेरे
लोग सोग श्रम बस गए सोई कछुक देवमायाँ मति मोई
जबहिं जाम जुग जामिनि बीती राम सचिव सन कहेउ सप्रीती
खोज मारि रथु हाँकहु ताता आन उपायँ बनिहि नहिं बाता
राम लखन सुय जान चढ़ि संभु चरन सिरु नाइ
सचिवँ चलायउ तुरत रथु इत उत खोज दुराइ
सीता सचिव सहित दोउ भाई सृंगबेरपुर पहुँचे जाई
उतरे राम देवसरि देखी कीन्ह दंडवत हरषु बिसेषी
मागी नाव न केवटु आना कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना
अम्बर
चरन कमल रज कहुँ सबु कहई मानुष करनि मूरि कछु अहई
छुअत सिला भइ नारि सुहाई पाहन तें न काठ कठिनाई
जौ प्रभु पार अवसि गा चहहू मोहि पद पदुम पखारन कहहू
पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं
मोहि राम राउरि आन दसरथ सपथ सब साची कहौं
बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं
तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं
मुकेश
सुनि केबट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे
बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन
कृपासिंधु बोले मुसुकाई सोइ करु जेंहि तव नाव न जाई
वेगि आनु जल पाय पखारू होत बिलंबु उतारहि पारू
जासु नाम सुमरत एक बारा उतरहिं नर भवसिंधु अपारा
सोइ कृपालु केवटहि निहोरा जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा
केवट राम रजायसु पावा पानि कठवता भरि लेइ आवा
अति आनंद उमगि अनुरागा चरन सरोज पखारन लागा
सुरेन्द्र और अम्बर
पद पखारि जलु पान करि आपु सहित परिवार
पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार0
मुकेश
उतरि ठाड़ भए सुरसरि रेता सीयराम गुह लखन समेता
केवट उतरि दंडवत कीन्हा प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा
पिय हिय की सिय जाननिहारी मनि मुदरी मन मुदित उतारी
कहेउ कृपाल लेहि उतराई केवट चरन गहे अकुलाई
नाथ आजु मैं काह न पावा मिटे दोष दुख दारिद दावा
बहुत कीन्ह प्रभु लखन सियँ नहिं कछु केवटु लेइ
बिदा कीन्ह करुनायतन भगति बिमल बरु देइ
प्रात प्रातकृत करि रधुसाई तीरथराजु दीख प्रभु जाई
अस तीरथपति देखि सुहावा सुख सागर रघुबर सुखु पावा
तब प्रभु भरद्वाज पहिं आए करत दंडवत मुनि उर लाए
राम सप्रेम कहेउ मुनि पाहीं नाथ कहिअ हम केहि मग जाहीं
मुनि बटु चारि संग तब दीन्हे जिन्ह बहु जनम सुकृत सब कीन्हे
करि प्रनामु रिषि आयसु पाई प्रमुदित हृदयँ चले रघुराई
बिदा किए बटु बिनय करि फिरे पाइ मन काम
उतरि नहाए जमुन जल जो सरीर सम स्याम
बरनि न जाइ दसा तिन्ह केरी लहि जनु रंकन्ह सुरमनि ढेरी
राम लखन सिय सुंदरताई सब चितवहिं चित मन मति लाई
थके नारि नर प्रेम पिआसे मनहुँ मृगी मृग देखि दिआ से
सीय समीप ग्रामतिय जाहीं पूँछत अति सनेहँ सकुचाहीं
पुष्पा और कमला
स्वामिनि अबिनय छमबि हमारी बिलगु न मानब जानि गवाँरी
राजकुअँर दोउ सहज सलोने इन्ह तें लही दुति मरकत सोने
स्यामल गौर किसोर बर सुंदर सुषमा ऐन
सरद सर्बरीनाथ मुखु सरद सरोरुह नैन
कोटि मनोज लजावनिहारे सुमुखि कहहु को आहिं तुम्हारे
मुकेश
सुनि सनेहमय मंजुल बानी सकुची सिय मन महुँ मुसुकानी
सकुचि सप्रेम बाल मृग नयनी बोली मधुर बचन पिकबयनी
सहज सुभाय सुभग तन गोरे नामु लखनु लघु देवर मोरे
बहुरि बदनु बिधु अंचल ढाँकी पिय तन चितइ भौंह करि बाँकी
खंजन मंजु तिरीछे नयननि निज पति कहेउ तिन्हहि सियँ सयननि
भइ मुदित सब ग्रामबधूटीं रंकन्ह राय रासि जनु लूटीं
अति सप्रेम सिय पायँ परि बहुबिधि देहिं असीस
सदा सोहागिनि होहु तुम्ह जब लगि महि अहि सीस
आगे रामु लखनु बने पाछें तापस बेष बिराजत काछें
उभय बीच सिय सोहति कैसे ब्रह्म जीव बिच माया जैसे
देखत बन सर सैल सुहाए बालमीकि आश्रम प्रभु आए
मुनि कहुँ राम दंडवत कीन्हा आसिरबादु बिप्रबर दीन्हा
देखि राम छबि नयन जुड़ाने करि सनमानु आश्रमहिं आने
सुरेन्द्र और अम्बर
श्रुति सेतु पालक राम तुम्ह जगदीस माया जानकी
जो सृजति जगु पालति हरति रूख पाइ कृपानिधान की
जो सहससीसु अहीसु महिधरु लखनु सचराचर धनी
सुर काज धरि नरराज तनु चले दलन खल निसिचर अनी
मुकेश
कह मुनि सुनहु भानुकुलनायक आश्रम कहउँ समय सुखदायक
चित्रकूट गिरि करहु निवासू तहँ तुम्हार सब भाँति सुपासू
अत्रि आदि मुनिबर बहु बसहीं करहिं जोग जप तप तन कसहीं
चलहु सफल श्रम सब कर करहू राम देहु गौरव गिरिबरहू
चित्रकूट महिमा अमित कहीं महामुनि गाइ
आए नहाए सरित बर सिय समेत दोउ भाइ