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रामायण-लंका काण्ड (भाग 1)
मुकेश
मंगल भवन अमंगल हारी द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी
सेन सहित उतरे रघुबीरा कहि न जाइ कपि जूथप भीरा
मंदोदरीं सुन्यो प्रभु आयो कौतुकहीं पाथोधि बँधायो
कर गहि पतिहि भवन निज आनी बोली परम मनोहर बानी
तासु बिरोध न कीजिअ नाथा काल करम जिव जाकें हाथा
तब रावन मयसुता उठाई कहै लाग खल निज प्रभुताई
नाना बिधि तेहि कहेसि बुझाई सभाँ बहोरि बैठ सो जाई
फूलह फरइ न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद
मूरुख हृदयँ न चेत जौं गुर मिलहिं बिरंचि सम
इहाँ प्रात जागे रघुराई पूछा मत सब सचिव बोलाई
कहहु बेगि का करिअ उपाई जामवंत कह पद सिरु नाई
मंत्र कहउँ निज मति अनुसारा दूत पठाइअ बालिकुमारा
नीक मंत्र सब के मन माना अंगद सन कह कृपानिधाना
बालितनय बुधि बल गुन धामा लंका जाहु तात मम कामा
काजु हमार तासु हित होई रिपु सन करेहु बतकही सोई
गयउ सभा दरबार तब सुमिरि राम पद कंज
सिंह ठवनि इत उत चितव धीर बीर बल पुंज
कह दसकंठ कवन तैं बंदर मैं रघुबीर दूत दसकंधर
अब सुभ कहा सुनहु तुम्ह मोरा सब अपराध छमिहि प्रभु तोरा
दसन गहहु तृन कंठ कुठारी परिजन सहित संग निज नारी
सादर जनकसुता करि आगें एहि बिधि चलहु सकल भय त्यागें
प्रनतपाल रघुबंसमनि त्राहि त्राहि अब मोहि
आरत गिरा सुनत प्रभु अभय करैगो तोहि
रे कपिपोत बोलु संभारी मूढ़ न जानेहि मोहि सुरारी
जौं पै समर सुभट तव नाथा पुनि पुनि कहसि जासु गुन गाथा
तौ बसीठ पठवत केहि काजा रिपु सन प्रीति करत नहिं लाजा
पुनि सकोप बोलेउ जुबराजा गाल बजावत तोहि न लाजा
रे त्रिय चोर कुमारग गामी खल मल रासि मंदमति कामी
सो नर क्यों दसकंध बालि बध्यो जेहिं एक सर
बीसहुँ लोचन अंध धिग तव जन्म कुजाति जड़
समुझि राम प्रताप कपि कोपा सभा माझ पन करि पद रोपा
जौं मम चरन सकसि सठ टारी फिरहिं रामु सीता मैं हारी
सुनहु सुभट सब कह दससीसा पद गहि धरनि पछारहु कीसा
झपटहिं करि बल बिपुल उपाई पद न टरइ बैठहिं सिरु नाई
कपि बल देखि सकल हियँ हारे उठा आपु कपि कें परचारे
गहत चरन कह बालिकुमारा मम पद गहें न तोर उबारा
गहसि न राम चरन सठ जाई सुनत फिरा मन अति सकुचाई
सिंघासन बैठेउ सिर नाई मानहुँ संपति सकल गँवाई
रिपु बल धरषि हरषि कपि बालितनय बल पुंज
पुलक सरीर नयन जल गहे राम पद कंज
साथी
जयति राम जय लछिमन जय कपीस सुग्रीव
गर्जहिं सिंघनाद कपि भालु महा बल सींव
सुरेन्द्र और अम्बर
धरि कुधर खंड प्रचंड कर्कट भालु गढ़ पर डारहीं
झपटहिं चरन गहि पटकि महि भजि चलत बहुरि पचारहीं
अति तरल तरुन प्रताप तरपहिं तमकि गढ़ चढ़ि चढ़ि गए
कपि भालु चढ़ि मंदिरन्ह जहँ तहँ राम जसु गावत भए
मुकेश
चले निसाचर निकर पराई प्रबल पवन जिमि घन समुदाई
निज दल बिचल सुनी तेहिं काना फेरि सुभट लंकेस रिसाना
जो रन बिमुख सुना मैं काना सो मैं हतब कराल कृपाना
उग्र बचन सुनि सकल डेराने चले क्रोध करि सुभट लजाने
बहु आयुध धर सुभट सब भिरहिं पचारि पचारि
ब्याकुल किए भालु कपि परिघ त्रिसूलन्हि मारी
निज दल बिकल सुना हनुमाना पच्छिम द्वार रहा बलवाना
मेघनाद तहँ करइ लराई टूट न द्वार परम कठिनाई
पवनतनय मन भा अति क्रोधा गर्जेउ प्रबल काल सम जोधा
कूदि लंक गढ़ ऊपर आवा गहि गिरि मेघनाद कहुँ धावा
भंजेउ रथ सारथी निपाता ताहि हृदय महुँ मारेसि लाता
दुसरें सूत बिकल तेहि जाना स्यंदन घालि तुरत गृह आना
अंगद सुना पवनसुत गढ़ पर गयउ अकेल
रन बाँकुरा बालिसुत तरकि चढ़ेउ कपि खेल
जुद्ध बिरुद्ध क्रुद्ध द्वौ बंदर राम प्रताप सुमिरि उर अंतर
रावन भवन चढ़े द्वौ धाई करहि कोसलाधीस दोहाई
कलस सहित गहि भवनु ढहावा देखि निसाचरपति भय पावा
आधा कटकु कपिन्ह संघारा कहहु बेगि का करिअ बिचारा
करत बिचार भयउ भिनुसारा लागे कपि पुनि चहूँ दुआरा
मेघनाद सुनि श्रवन अस गढ़ु पुनि छेंका आइ
उतर्यो बीर दुर्ग तें सन्मुख चल्यो बजाइ
आयसु मागि राम पहिं अंगदादि कपि साथ
लछिमन चले क्रुद्ध होइ बान सरासन हाथ
लछिमन मेघनाद द्वौ जोधा भिरहिं परसपर करि अति क्रोधा
एकहि एक सकइ नहिं जीती निसिचर छल बल करइ अनीती
क्रोधवंत तब भयउ अनंता भंजेउ रथ सारथी तुरंता
नाना बिधि प्रहार कर सेषा राच्छस भयउ प्रान अवसेषा
बीरघातिनी छाड़िसि साँगी तेज पुंज लछिमन उर लागी
मुरुछा भई सक्ति के लागें तब चलि गयउ निकट भय त्यागें
मेघनाद सम कोटि सत जोधा रहे उठाइ
जगदाधार सेष किमि उठै चले खिसिआइ
संध्या भइ फिरि द्वौ बाहनी लगे सँभारन निज निज अनी
ब्यापक ब्रह्म अजित भुवनेस्वर लछिमन कहाँ बूझ करुनाकर
तब लगि लै आयउ हनुमाना अनुज देखि प्रभु अति दुख माना
जामवंत कह बैद सुषेना लंकाँ रहइ को पठई लेना
धरि लघु रूप गयउ हनुमंता आनेउ भवन समेत तुरंता
राम पदारबिंद सिर नायउ आइ सुषेन
कहा नाम गिरि औषधी जाहु पवनसुत लेन
मंगल भवन अमंगल हारी द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी
राम चरन सरसिज उर राखी चला प्रभंजन सुत बल भाषी
देखा सैल न औषध चीन्हा सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हा
गहि गिरि निसि नभ धावत भयऊ अवधपुरी उपर कपि गयऊ
देखा भरत बिसाल अति निसिचर मन अनुमानि
बिनु फर सायक मारेउ चाप श्रवन लगि तानि
परेउ मुरुछि महि लागत सायक सुमिरत राम राम रघुनायक
सुनि प्रिय बचन भरत तब धाए कपि समीप अति आतुर आए
बिकल बिलोकि कीस उर लावा जागत नहिं बहु भाँति जगावा
मुख मलीन मन भए दुखारी कहत बचन भरि लोचन बारी
जेहिं बिधि राम बिमुख मोहि कीन्हा तेहिं पुनि यह दारुन दुख दीन्हा
नितिन
जौं मोरें मन बच अरु काया प्रीति राम पद कमल अमाया
तौ कपि होउ बिगत श्रम सूला जौं मो पर रघुपति अनुकूला
मुकेश
सुनत बचन उठि बैठ कपीसा कहि जय जयति कोसलाधीसा
सुरेन्द्र और अम्बर
भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार
मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार
मुकेश
उहाँ राम लछिमनहिं निहारी बोले बचन मनुज अनुसारी
अर्ध राति गइ कपि नहिं आयउ राम उठाइ अनुज उर लायउ
सकहु न दुखित देखि मोहि काऊ बंधु सदा तव मृदुल सुभाऊ
मम हित लागि तजेहु पितु माता सहेहु बिपिन हिम आतप बाता
सो अनुराग कहाँ अब भाई उठहु न सुनि मम बच बिकलाई
जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू
जैहउँ अवध कवन मुहु लाई नारि हेतु प्रिय भाइ गँवाई
बहु बिधि सिचत सोच बिमोचन स्त्रवत सलिल राजिव दल लोचन
प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर
आइ गयउ हनुमान जिमि करुना महँ बीर रस
तुरत बैद तब कीन्ह उपाई उठि बैठे लछिमन हरषाई
हृदयँ लाइ प्रभु भेंटेउ भ्राता हरषे सकल भालु कपि ब्राता
यह बृत्तांत दसानन सुनेऊ अति बिषअद पुनि पुनि सिर धुनेऊ
ब्याकुल कुंभकरन पहिं आवा बिबिध जतन करि ताहि जगावा
कुंभकरन बूझा कहु भाई काहे तव मुख रहे सुखाई
कथा कही सब तेहिं अभिमानी जेहि प्रकार सीता हरि आनी
सुनि दसकंधर बचन तब कुंभकरन बिलखान
जगदंबा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान
भल न कीन्ह तैं निसिचर नाहा अब मोहि आइ जगाएहि काहा
अहह बंधु तैं कीन्हि खोटाई प्रथमहिं मोहि न सुनाएहि आई
अब भरि अंक भेंटु मोहि भाई लोचन सूफल करौ मैं जाई
कुंभकरन दुर्मद रन रंगा चला दुर्ग तजि सेन न संगा
देखि बिभीषनु आगें आयउ परेउ चरन निज नाम सुनायउ
अनुज उठाइ हृदयँ तेहि लायो रघुपति भक्त जानि मन भायो
धन्य धन्य तैं धन्य बिभीषन भयहु तात निसिचर कुल भूषन
प्रदीप और अम्बर
बचन कर्म मन कपट तजि भजेहु राम रनधीर
जाहु न निज पर सूझ मोहि भयउँ कालबस बीर
मुकेश
कुंभकरन रन रंग बिरुद्धा सन्मुख चला काल जनु क्रुद्धा
कोटि कोटि कपि धरि धरि खाई जनु टीड़ी गिरि गुहाँ समाई
मुख नासा श्रवनन्हि कीं बाटा निसरि पराहिं भालु कपि ठाटा
कुंभकरन कपि फौज बिडारी सुनि धाई रजनीचर धारी
सुनु सुग्रीव बिभीषन अनुज सँभारेहु सैन
मैं देखउँ खल बल दलहि बोले राजिवनैन
कर सारंग साजि कटि भाथा अरि दल दलन चले रघुनाथा
खैंचि धनुष सर सत संधाने छूटे तीर सरीर समाने
लीन्ह एक तेहिं सैल उपाटी रघुकुल तिलक भुजा सोइ काटी
धावा बाम बाहु गिरि धारी प्रभु सोउ भुजा काटि महि पारी
उग्र बिलोकनि प्रभुहि बिलोका ग्रसन चहत मानहुँ त्रेलोका
तब प्रभु कोपि तीब्र सर लीन्हा धर ते भिन्न तासु सिर कीन्हा
सो सिर परेउ दसानन आगें बिकल भयउ जिमि फनि मनि त्यागें
सुर दुंदुभीं बजावहिं हरषहिं अस्तुति करहिं सुमन बहु बरषहिं
कृष्णा और सुधा
संग्राम भूमि बिराज रघुपति
प्रदीप और सुरेन्द्र
अतुल बल कोसल धनी
कृष्णा और सुधा
श्रम बिंदु मुख राजीव
प्रदीप और सुरेन्द्र
लोचन अरुन तन सोनित कनी
साथी
भुज जुगल फेरत सर सरासन भालु कपि चहु दिसि बने
कह दास तुलसी
प्रदीप और अम्बर
कहि न सक छबि सेष
कृष्णा और सुधा
जेहि आनन घने
साथी
निसिचर अधम मलाकर ताहि दीन्ह निज धाम
गिरिजा ते नर मंदमति जे न भजहिं श्रीराम
मुकेश
बहु बिलाप दसकंधर करई बंधु सीस पुनि पुनि उर धरई
मेघनाद तेहि अवसर आयउ कहि बहु कथा पिता समुझायउ
देखेहु कालि मोरि मनुसाई अबहिं बहुत का करौं बड़ाई
एहि बिधि जल्पत भयउ बिहाना चहुँ दुआर लागे कपि नाना
मेघनाद मायामय रथ चढ़ि गयउ अकास
गर्जेउ अट्टहास करि भइ कपि कटकहि त्रास
मारुतसुत अंगद नल नीला कीन्हेसि बिकल सकल बलसीला
पुनि रघुपति सैं जूझे लागा सर छाँड़इ होइ लागहिं नागा
ब्याल पास बस भए खरारी स्वबस अनंत एक अबिकारी
इहाँ देवरिषि गरुड़ पठायो राम समीप सपदि सो आयो
खगपति सब धरि खाए माया नाग बरूथ
माया बिगत भए सब हरषे बानर जूथ
मेघनाद मख करइ अपावन खल मायावी देव सतावन
लछिमन संग जाहु सब भाई करहु बिधंस जग्य कर जाई
जब रघुबीर दीन्हि अनुसासन कटि निषंग कसि साजि सरासन
प्रभु प्रताप उर धरि रनधीरा बोले घन इव गिरा गँभीरा
जौं तेहि आजु बधें बिनु आवौं तौ रघुपति सेवक न कहावौं
सुरेन्द्र और अम्बर
रघुपति चरन नाइ सिरु चलेउ तुरंत अनंत
अंगद नील मयंद नल संग सुभट हनुमंत
मुकेश
सुमिरि कोसलाधीस प्रतापा सर संधान कीन्ह करि दापा
छाड़ा बान माझ उर लागा मरती बार कपटु सब त्यागा
रामानुज कहँ रामु कहँ अस कहि छाँड़ेसि प्रान
धन्य धन्य तव जननी कह अंगद हनुमान