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रामायण-अयोध्या काण्ड खंड-1 (भाग-2)
मुकेश
मंगल भवन अमंगल हारी द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी
कहेउँ राम बन गवनु सुहावा सुनहु सुमंत्र अवध जिमि आवा
पैठत नगर सचिव सकुचाई जनु मारेसि गुर बाँभन गाई
बैठि बिटप तर दिवसु गवाँवा साँझ समय तब अवसरु पावा
अवध प्रबेसु कीन्ह अँधिआरें पैठ भवन रथु राखि दुआरें
जिन्ह जिन्ह समाचार सुनि पाए भूप द्वार रथु देखन आए
सचिव आगमनु सुनत सबु बिकल भयउ रनिवासु
भवन भयंकरु लाग तेहि मानहुँ प्रेत निवासु
अति आरति सब पूँछहिं रानी उतरु न आव बिकल भइ बानी
सुनइ न श्रवन नयन नहिं सूझा कहहु कहाँ नृप तेहि तेहि बूझा
दासिन्ह दीख सचिव बिकलाई कौसल्या गृहँ गईं लवाई
जाइ सुमंत्र दीख कस राजा अमिअ रहित जनु चंदु बिराजा
आसन सयन बिभूषन हीना परेउ भूमितल निपट मलीना
राम राम कह राम सनेही पुनि कह राम लखन बैदेही
देखि सचिवँ जय जीव कहि कीन्हेउ दंड प्रनामु
सुनत उठेउ ब्याकुल नृपति कहु सुमंत्र कहँ रामु
कहाँ लखनु कहँ रामु सनेही कहँ प्रिय पुत्रबधू बैदेही
बिलपत राउ बिकल बहु भाँती भइ जुग सरिस सिराति न राती
तापस अंध साप सुधि आई कौसल्यहि सब कथा सुनाई
भयउ बिकल बरनत इतिहासा राम रहित धिग जीवन आसा
सो तनु राखि करब मैं काहा जेंहि न प्रेम पनु मोर निबाहा
हा रघुनंदन प्रान पिरीते तुम्ह बिनु जिअत बहुत दिन बीते
राम राम कहि राम कहि राम राम कहि राम
तनु परिहरि रघुबर बिरहँ राउ गयउ सुरधाम
जिअन मरन फलु दसरथ पावा अंड अनेक अमल जसु छावा
जिअत राम बिधु बदनु निहारा राम बिरह करि मरनु सँवारा
अनरथु अवध अरंभेउ जब तें कुसगुन होहिं भरत कहुँ तब तें
देखहिं राति भयानक सपना जागि करहिं कटु कोटि कलपना
बिप्र जेवाँइ देहिं दिन दाना सिव अभिषेक करहिं बिधि नाना
मागहिं हृदयँ महेस मनाई कुसल मातु पितु परिजन भाई
एहि बिधि सोचत भरत मन धावन पहुँचे आइ
गुर अनुसासन श्रवन सुनि चले गनेसु मनाइ–
चले समीर बेग हय हाँके नाघत सरित सैल बन बाँके
एक निमेष बरस सम जाई एहि बिधि भरत नगर निअराई
भरत दुखित परिवारु निहारा मानहुँ तुहिन बनज बनु मारा
सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ
हानि लाभु जीवन मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ
राँय राजपदु तुम्ह कहुँ दीन्हा पिता बचनु फुर चाहिअ कीन्हा
करहु सीस धरि भूप रजाई हइ तुम्ह कहँ सब भाँति भलाई
कौसल्या धरि धीरजु कहई पूत पथ्य गुर आयसु अहई
सिर धरि गुर आयसु अनुसरहू प्रजा पालि परिजन दुखु हरहू
कृष्णा और कमला
सानी सरल रस मातु बानी सुनि भरत ब्याकुल भए
लोचन सरोरुह स्त्रवत सींचत बिरह उर अंकुर नए
दसा देखत समय तेहि बिसरी सबहि सुधि देह की
तुलसी सराहत सकल सादर सीवँ सहज सनेह की
मुकेश
भरतु कमल कर जोरि धीर धुरंधर धीर धरि
बचन अमिअँ जनु बोरि देत उचित उत्तर सबहि
मोहि उपदेसु दीन्ह गुर नीका प्रजा सचिव संमत सबही का
मातु उचित धरि आयसु दीन्हा अवसि सीस धरि चाहउँ कीन्हा
जद्यपि यह समुझत हउँ नीकें तदपि होत परितोषु न जी कें
हित हमार सियपति सेवकाई सो हरि लीन्ह मातु कुटिलाई
सोक समाजु राजु केहि लेखें लखन राम सिय बिनु पद देखें
जाउँ राम पहिं आयसु देहू एकहिं आँक मोर हित एहू
आपनि दारुन दीनता कहउँ सबहि सिरु नाइ
देखें बिनु रघुनाथ पद जिय कै जरनि न जाइ
सौंपि नगर सुचि सेवकनि सादर सकल चलाइ
सुमिरि राम सिय चरन तब चले भरत दोउ भाइ
भरत दीख प्रभु आश्रमु पावन सकल सुमंगल सदनु सुहावन
देखे भरत लखन प्रभु आगे पूँछे बचन कहत अनुरागे
पाहि नाथ कहि पाहि गोसाई भूतल परे लकुट की नाई
बचन सपेम लखन पहिचाने करत प्रनामु भरत जियँ जाने
कहत सप्रेम नाइ महि माथा भरत प्रनाम करत रघुनाथा
उठे रामु सुनि पेम अधीरा कहुँ पट कहुँ निषंग धनु तीरा
सुरेन्द्र और अम्बर
बरबस लिए उठाइ उर लाए कृपानिधान
भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान
मिलि सपेम रिपुसूदनहि केवटु भेंटेउ राम
भूरि भायँ भेंटे भरत लछिमन करत प्रनाम
मुकेश
तब मुनि बोले भरत सन सब सँकोचु तजि तात
कृपासिंधु प्रिय बंधु सन कहहु हृदय कै बात
पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढें नीरज नयन नेह जल बाढ़ें
कहब मोर मुनिनाथ निबाहा एहि तें अधिक कहौं मैं काहा
मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ अपराधिहु पर कोह न काऊ
देव एक बिनती सुनि मोरी उचित होइ तस करब बहोरी
तिलक समाजु साजि सबु आना करिअ सुफल प्रभु जौं मनु माना
चुपहिं रहे रघुनाथ सँकोची प्रभु गति देखि सभा सब सोची
जनक दूत तेहि अवसर आए मुनि बसिष्ठँ सुनि बेगि बोलाए
प्रेम मगन तेहि समय सब सुनि आवत मिथिलेसु
सहित सभा संभ्रम उठेउ रबिकुल कमल दिनेसु
साथी
अवगाहि सोक समुद्र सोचहिं नारि नर ब्याकुल महा
दै दोष सकल सरोष बोलहिं बाम बिधि कीन्हो कहा
सुर सिद्ध तापस जोगिजन मुनि देखि दसा बिदेह की
तुलसी न समरथु कोउ जो तरि सकै सरित सनेह की
मुकेश
किए अमित उपदेस जहँ तहँ लोगन्ह मुनिबरन्ह
धीरजु धरिअ नरेस कहेउ बसिष्ठ बिदेह सन
मुकेश
मंगल भवन अमंगल हारी द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी
राज समाज प्रात जुग जागे न्हाइ न्हाइ सुर पूजन लागे
गे नहाइ गुर पहीं रघुराई बंदि चरन बोले रुख पाई
नाथ भरतु पुरजन महतारी सोक बिकल बनबास दुखारी
सहित समाज राउ मिथिलेसू बहुत दिवस भए सहत कलेसू
उचित होइ सोइ कीजिअ नाथा हित सबही कर रौरें हाथा
अस कहि अति सकुचे रघुराऊ मुनि पुलके लखि सीलु सुभाऊ
प्रान प्रान के जीव के जिव सुख के सुख राम
तुम्ह तजि तात सोहात गृह जिन्हहि तिन्हहिं बिधि बाम
तुम्ह बिनु दुखी सुखी तुम्ह तेहीं तुम्ह जानहु जिय जो जेहि केहीं
राउर आयसु सिर सबही कें बिदित कृपालहि गति सब नीकें
आपु आश्रमहि धारिअ पाऊ भयउ सनेह सिथिल मुनिराऊ
करि प्रनाम तब रामु सिधाए रिषि धरि धीर जनक पहिं आए
राम बचन गुरु नृपहि सुनाए सील सनेह सुभायँ सुहाए
महाराज अब कीजिअ सोई सब कर धरम सहित हित होई
ग्यान निधान सुजान सुचि धरम धीर नरपाल
तुम्ह बिनु असमंजस समन को समरथ एहि काल
समउ समुझि धरि धीरजु राजा चले भरत पहिं सहित समाजा
तात भरत कह तेरहुति राऊ तुम्हहि बिदित रघुबीर सुभाऊ
सुनि तन पुलकि नयन भरि बारी बोले भरतु धीर धरि भारी
छोटे बदन कहउँ बड़ि बाता छमब तात लखि बाम बिधाता
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना सेवाधरमु कठिन जगु जाना
स्वामि धरम स्वारथहि बिरोधू बैरु अंध प्रेमहि न प्रबोधू
राखि राम रुख धरमु ब्रतु पराधीन मोहि जानि
सब कें संमत सर्ब हित करिअ पेमु पहिचानि
भूप भरत मुनि सहित समाजू गे जहँ बिबुध कुमुद द्विजराजू
जनक भरत संबादु सुनाई भरत कहाउति कही सुहाई
तात राम जस आयसु देहू सो सबु करै मोर मत एहू
सुनि रघुनाथ जोरि जुग पानी बोले सत्य सरल मृदु बानी
बिद्यमान आपुनि मिथिलेसू मोर कहब सब भाँति भदेसू
राउर राय रजायसु होई राउरि सपथ सही सिर सोई
साथी
राम सपथ सुनि मुनि जनकु सकुचे सभा समेत
सकल बिलोकत भरत मुखु बनइ न उतरु देत
मुकेश
सभा सकुच बस भरत निहारी रामबंधु धरि धीरजु भारी
कुसमउ देखि सनेहु सँभारा बढ़त बिंधि जिमि घटज निवारा
करि प्रनामु सब कहँ कर जोरे रामु राउ गुर साधु निहोरे
छमब आजु अति अनुचित मोरा कहउँ बदन मृदु बचन कठोरा
नाथ निपट मैं कीन्हि ढिठाई स्वामि समाज सकोच बिहाई
अबिनय बिनय जथारुचि बानी छमिहि देउ अति आरति जानी
सुह्रद सुजान सुसाहिबहि बहुत कहब बड़ि खोरि
आयसु देइअ देव अब सबइ सुधारी मोरि
प्रभु पद पदुम पराग दोहाई सत्य सुकृत सुख सीवँ सुहाई
सो करि कहउँ हिए अपने की रुचि जागत सोवत सपने की
सहज सनेहँ स्वामि सेवकाई स्वारथ छल फल चारि बिहाई
अग्या सम न सुसाहिब सेवा सो प्रसादु जन पावै देवा
कृपासिंधु सनमानि सुबानी बैठाए समीप गहि पानी
जानहु तात तरनि कुल रीती सत्यसंध पितु कीरति प्रीती
तुम्हहि बिदित सबही कर करमू आपन मोर परम हित धरमू
मोहि सब भाँति भरोस तुम्हारा तदपि कहउँ अवसर अनुसारा
मातु पिता गुर स्वामि निदेसू सकल धरम धरनीधर सेसू
सो तुम्ह करहु करावहु मोहू तात तरनिकुल पालक होहू
सेवक कर पद नयन से मुख सो साहिबु होइ
तुलसी प्रीति कि रीति सुनि सुकबि सराहहिं सोइ
सभा सकल सुनि रघुबर बानी प्रेम पयोधि अमिअ जनु सानी
भरतहि भयउ परम संतोषू सनमुख स्वामि बिमुख दुख दोषू
मुख प्रसन्न मन मिटा बिषादू भा जनु गूँगेहि गिरा प्रसादू
कीन्ह सप्रेम प्रनामु बहोरी बोले पानि पंकरुह जोरी
अब कृपाल जस आयसु होई करौं सीस धरि सादर सोई
अवलंब देव मोहि देई अवधि पारु पावौं जेहि सेई
साथी
दीनबंधु सुनि बंधु के बचन दीन छलहीन
देस काल अवसर सरिस बोले रामु प्रबीन
मुकेश
माथे पर गुर मुनि मिथिलेसू हमहि तुम्हहि सपनेहुँ न कलेसू
अस बिचारि सब सोच बिहाई पालहु अवध अवधि भरि जाई
बंधु प्रबोधु कीन्ह बहु भाँती बिनु अधार मन तोषु न साँती
प्रभु करि कृपा पाँवरीं दीन्हीं सादर भरत सीस धरि लीन्हीं
चरनपीठ करुनानिधान के जनु जुग जामिक प्रजा प्रान के
भरत मुदित अवलंब लहे तें अस सुख जस सिय रामु रहे तें
दो-मागेउ बिदा प्रनामु करि राम लिए उर लाइ
लोग उचाटे अमरपति कुटिल कुअवसरु पाइ
साथी
लखनहि भेंटि प्रनामु करि सिर धरि सिय पद धूरि
चले सप्रेम असीस सुनि सकल सुमंगल मूरि
प्रभु गुन ग्राम गनत मन माहीं सब चुपचाप चले मग जाहीं
सई उतरि गोमतीं नहाए चौथें दिवस अवधपुर आए
सचिव सुसेवक भरत प्रबोधे निज निज काज पाइ पाइ सिख ओधे
सानुज गे गुर गेहँ बहोरी करि दंडवत कहत कर जोरी
आयसु होइ त रहौं सनेमा बोले मुनि तन पुलकि सपेमा
समुझव कहब करब तुम्ह जोई धरम सारु जग होइहि सोई
सुनि सिख पाइ असीस बड़ि गनक बोलि दिनु साधि
सिंघासन प्रभु पादुका बैठारे निरुपाधि
साथी
नित पूजत प्रभु पाँवरी प्रीति न हृदयँ समाति
मागि मागि आयसु करत राज काज बहु भाँति
सिय राम प्रेम पियूष पूरन होत जनमु न भरत को
मुनि मन अगम जम नियम सम दम बिषम ब्रत आचरत को
दुख दाह दारिद दंभ दूषन सुजस मिस अपहरत को
कलिकाल तुलसी से सठन्हि हठि राम सनमुख करत को