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रामायण-अरण्या काण्ड
मुकेश
मंगल भवन अमंगल हारी द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी
रघुपति चित्रकूट बसि नाना चरित किए श्रुति सुधा समाना
बहुरि राम अस मन अनुमाना होइहि भीर सबहिं मोहि जाना
सकल मुनिन्ह सन बिदा कराई सीता सहित चले द्वौ भाई
अत्रि के आश्रम जब प्रभु गयऊ सुनत महामुनि हरषित भयऊ
देखि राम छबि नयन जुड़ाने सादर निज आश्रम तब आने
प्रभु आसन आसीन भरि लोचन सोभा निरखि
मुनिबर परम प्रबीन जोरि पानि अस्तुति करत
प्रदीप और सुरेन्द्र
नमामि भक्त वत्सलं कृपालु शील कोमलं
भजामि ते पदांबुजं अकामिनां स्वधामदं
निकाम श्याम सुंदरं भवाम्बुनाथ मंदरं
प्रसीद मे नमामि ते पदाब्ज भक्ति देहि मे
मुकेश
पुनि रघुनाथ चले बन आगे मुनिबर बृंद बिपुल सँग लागे
अस्थि समूह देखि रघुराया पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया
जानतहुँ पूछिअ कस स्वामी सबदरसी तुम्ह अंतरजामी
निसिचर निकर सकल मुनि खाए सुनि रघुबीर नयन जल छाए
निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह
सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह
मुनि अगस्ति कर सिष्य सुजाना नाम सुतीछन रति भगवाना
तुरत सुतीछन गुर पहिं गयऊ करि दंडवत कहत अस भयऊ
नाथ कौसलाधीस कुमारा आए मिलन जगत आधारा
सुनत अगस्ति तुरत उठि धाए हरि बिलोकि लोचन जल छाए
सादर कुसल पूछि मुनि ग्यानी आसन बर बैठारे आनी
सुरेन्द्र
है प्रभु परम मनोहर ठाऊँ पावन पंचबटी तेहि नाऊँ
बास करहु तहँ रघुकुल राया कीजे सकल मुनिन्ह पर दाया
मुकेश
चले राम मुनि आयसु पाई तुरतहिं पंचबटी निअराई
गीधराज सैं भैंट भइ बहु बिधि प्रीति बढ़ाइ
गोदावरी निकट प्रभु रहे परन गृह छाइ
सूपनखा रावन कै बहिनी दुष्ट हृदय दारुन जस अहिनी
पंचबटी सो गइ एक बारा देखि बिकल भइ जुगल कुमारा
रुचिर रुप धरि प्रभु पहिं जाई बोली बचन बहुत मुसुकाई
तुम्ह सम पुरुष न मो सम नारी यह सँजोग बिधि रचा बिचारी
लछिमन कहा तोहि सो बरई जो तृन तोरि लाज परिहरई
तब खिसिआनि राम पहिं गई रूप भयंकर प्रगटत भई
सीतहि सभय देखि रघुराई कहा अनुज सन सयन बुझाई
लछिमन अति लाघवँ सो नाक कान बिनु कीन्हि
ताके कर रावन कहँ मनौ चुनौती दीन्हि
दसमुख गयउ जहाँ मारीचा नाइ माथ स्वारथ रत नीचा
होहु कपट मृग तुम्ह छलकारी जेहि बिधि हरि आनौ नृपनारी
तब मारीच हृदयँ अनुमाना नवहि बिरोधें नहिं कल्याना
अस जियँ जानि दसानन संगा चला राम पद प्रेम अभंगा
अम्बर
निज परम प्रीतम देखि लोचन सुफल करि सुख पाइहौं
श्री सहित अनुज समेत कृपानिकेत पद मन लाइहौं
मुकेश
सीता परम रुचिर मृग देखा अंग अंग सुमनोहर बेषा
सत्यसंध प्रभु बधि करि एही आनहु चर्म कहति बैदेही
प्रभुहि बिलोकि चला मृग भाजी धाए रामु सरासन साजी
प्रगटत दुरत करत छल भूरी एहि बिधि प्रभुहि गयउ लै दूरी
तब तकि राम कठिन सर मारा धरनि परेउ करि घोर पुकारा
लछिमन कर प्रथमहिं लै नामा पाछें सुमिरेसि मन महुँ रामा
आरत गिरा सुनी जब सीता कह लछिमन सन परम सभीता
जाहु बेगि संकट अति भ्राता लछिमन बिहसि कहा सुनु माता
भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई सपनेहुँ संकट परइ कि सोई
मरम बचन जब सीता बोला हरि प्रेरित लछिमन मन डोला
बन दिसि देव सौंपि सब काहू चले जहाँ रावन ससि राहू
सून बीच दसकंधर देखा आवा निकट जती कें बेषा
नाना बिधि करि कथा सुहाई राजनीति भय प्रीति देखाई
कह सीता सुनु जती गोसाईं बोलेहु बचन दुष्ट की नाईं
तब रावन निज रूप देखावा भई सभय जब नाम सुनावा
कह सीता धरि धीरजु गाढ़ा आइ गयउ प्रभु रहु खल ठाढ़ा
क्रोधवंत तब रावन लीन्हिसि रथ बैठाइ
चला गगनपथ आतुर भयँ रथ हाँकि न जाइ
वाणी और कृष्णा
रघुराया हा जग एक बीर रघुराया केहिं अपराध बिसारेहु दाया
आरति हरन सरन सुखदायक हा रघुकुल सरोज दिननायक
हा लछिमन तुम्हार नहिं दोसा सो फलु पायउँ कीन्हेउँ रोसा
मुकेश
सीता कै बिलाप सुनि भारी भए चराचर जीव दुखारी
गीधराज सुनि आरत बानी रघुकुलतिलक नारि पहिचानी
धावा क्रोधवंत खग कैसें छूटइ पबि परबत कहुँ जैसे
चौचन्ह मारि बिदारेसि देही दंड एक भइ मुरुछा तेही
तब सक्रोध निसिचर खिसिआना काढ़ेसि परम कराल कृपाना
काटेसि पंख परा खग धरनी सुमिरि राम करि अदभुत करनी
सीतहि जानि चढ़ाइ बहोरी चला उताइल त्रास न थोरी
वाणी और कृष्णा
करति बिलाप जाति नभ सीता ब्याध बिबस जनु मृगी सभीता
गिरि पर बैठे कपिन्ह निहारी कहि हरि नाम दीन्ह पट डारी
मुकेश
एहि बिधि सीतहि सो लै गयऊ बन असोक महँ राखत भयऊ
हारि परा खल बहु बिधि भय अरु प्रीति देखाइ
तब असोक पादप तर राखिसि जतन कराइ
वाणी और कृष्णा
जेहि बिधि कपट कुरंग सँग धाइ चले श्रीराम
सो छबि सीता राखि उर रटति रहति हरिनाम
मुकेश
आश्रम देखि जानकी हीना भए बिकल जस प्राकृत दीना
लछिमन समुझाए बहु भाँती पूछत चले लता तरु पाँती
आगे परा गीधपति देखा सुमिरत राम चरन जिन्ह रेखा
तब कह गीध बचन धरि धीरा सुनहु राम भंजन भव भीरा
नाथ दसानन यह गति कीन्ही तेहि खल जनकसुता हरि लीन्ही
दरस लागी प्रभु राखेंउँ प्राना चलन चहत अब कृपानिधाना
अबिरल भगति मागि बर गीध गयउ हरिधाम
तेहि की क्रिया जथोचित निज कर कीन्ही राम